संस्कार घूंघट में नहीं स्वभाव में ढूंढो - योगेश किराड़ू

जीवन अनमोल है इसे आत्महत्या कर नष्ट नहीं करें !

सुबह की शुरुआत माता-पिता के चरण स्पर्श से करें !

संस्कार सृजन राम गोपाल सैनी

बीकानेर (संस्कार सृजन) घूंघट पहचान है राजस्थानियों की, जो प्रतीक है सम्मान और आदर भाव का। लेकिन ये कहां तक कहना सही होगा कि घूंघट ना रखने से संस्कारहीन हो जाते या हमारी संस्कृति का सम्मान नहीं करते।माना कि आज देश आगे बढ़ रहा है, नई- नई ऊंचाईयां छू रहा है। तरक्की की सीढ़ियां पार कर रहा है। लेकिन फिर भी कहीं ना कहीं पिछड़ा हुआ है अपने विचारों के दायरे से, अपनी बेतुकी धारणाओं से कि औरतों को घूंघट में रहकर बस घर ही संभालना चाहिए। लेकिन ये किस हद तक सही है, क्या हमारी ये सोच हमें सफल बनाती है? या इससे हमारे देश का समाज का उद्धार हुआ है? इन्हीं विषयों पर चर्चा कर रहे है बीकानेर के नवोदित युवा लेखक योगेश किराड़ू। जिहोंने बीकानेर ही नहीं बल्कि देश और विदेश में भी अपने लेखन से पहचान हासिल की है |


संस्कार घूंघट में नहीं स्वभाव में ढूंढो - बेशक आज हमारा समाज, हमारा देश प्रगति के पथ पर है,पर आज भी जरूरत है कुछ बदलाव की, वो छोटे छोटे बदलाव जो बड़े असरदार हो सकते है, बस जरूरत है एक पहल की, एक प्रयास की। आज चर्चा का विषय है महिलाओं और बेटियों के गांवों और बड़े शहरों में अंतर का। जहां बड़े बड़े शहरों की बेटियां महिलाएं बड़े बड़े मुकाम हासिल कर रही है वही कुछ गावों और शहरों की महिलाएं आज भी समाज और अपनी परम्पराओं में सीमित दायरे के कारण आगे बढ़ने से वंचित है। आज के समय मे बेटों से कहीं गुना ज्यादा कामयाब बेटियां है और आगे भी हो सकती है, बस उन्हें जरूरत है तो परिवार के सहयोग की,उनके समर्थन की और प्रोत्साहन की। 

राजस्थान जैसे और भी कई राज्यों और देश के अनेक ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी बेटियों को शिक्षा से दूर घर के कामों और घर तक ही सीमित रखा जाता है। उन्हें ये सिखाया जाता है कि "तुम बेटी हो घर के काम काज सीखो,तुम तो पराया धन हो, पढ़ लिखकर क्या कर लोगे संभालना तो पति बच्चें और परिवार ही है, कौनसा अफसरानी बनकर आराम फरमाना है... वगैरह वगैरह दकियानूसी सोच भरी बातें और  काफी चीजो में रोक टोक और पाबंदी यहाँ आम बात है, पर एक बेटी का दर्द उसके मन की और उसके सपनों के बारे में कोई नहीं सोचता।

भ्रूण हत्या,बलात्कार,दहेज, मारपीट, ये सब यहां आम बात हो गयी है। लेकिन ये सब दुर्व्यवहार घूंघट में संस्कारो की बातें करने वालों के यहां के बच्चे भी तो कर रहे । फिर तो घूंघट अपने उन बेटों के भी करवाओ जो ऐसे दुर्व्यवहार कर रहे। सारी पाबंदियां, सारे रस्मों रिवाज, प्रथाएं बस बेटियों के लिए ही क्यों,बस उन्हें ही क्यों उड़ान भरने से रोका जा रहा। बेटियां बिना घूंघट भी संस्कारों का परिचायक है,वो शिक्षित होकर भी मर्यादाओं का पालन कर सकती। देश और समाज की बेटी को अब घूँघट की नहीं उनके पंखों को हौसलों को उड़ान की जरूरत है।

"उदाहरण के तौर पर हाल ही में सफल हुए परीक्षण चंद्रयान 3 को ही ले लीजिए। जिसमें सभी का काम सराहनीय है, लेकिन किसी ने गौर किया उसमें अपनी आवाज से सबका ध्यान आकर्षित करने वाली वैज्ञानिक एक महिला थी चेन्नई की "वलारमथी " लेकिन उन्होंने घूंघट तो नहीं रखा था,पर सफलताओं की बुलंदियों में सबसे आगे रही।"

वही दूसरी ओर बात करें विकास की तो जब अपनी मेहनत औऱ काबिलियत से आदिवासी समाज की बेटी द्रौपदी मुर्मू देश की राष्ट्रपति बन सकती है तो हर गाँव और शहर की बेटियां क्या कुछ नहीं कर सकती।बस जरूरत है उन्हें अपने माता -पिता के साथ की,जो उन्हें बेटा -बेटी का अन्तर ना बताकर उनका हौसला अफजाई कर उन्हें प्रोत्साहित करे कि वो रसोई और घूँघट से पीछे छोड़ कर नई उड़ान भर सकती है, क्योकि संस्कार घूंघट में नहीं औरत के स्वभाव उसके काम की लगन और मेहनत के फल में मिलता है। और अंत में चंद पंक्तियां बेटियों को समर्पित

"तुम आज की नारी,सब पर हो भारी,

हैं अगर ये घूंघट का मान तुमसे,

तो विकास की बागडोर में भी है

तुम्हारी बराबर की भागीदारी,

उठो, बढ़ो, हिम्मत ना हारो ,

अब इस देश की शोभा भी है तुमसे हमारी।।"

योगेश किराड़ू, नवोदित युवा लेखक, बीकानेर (राजस्थान)

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