समानता बन्धुता के पोषक महात्मा फुले (जन्म दिन 11 अप्रेल विशेष)

जीवन अनमोल है इसे आत्महत्या कर नष्ट नहीं करें !

सुबह की शुरुआत माता-पिता के चरण स्पर्श से करें !

संस्कार सृजन राम गोपाल सैनी

जयपुर (संस्कार सृजन) महात्मा फुले सामाजिक क्रान्ति के प्रथम दृष्टा, कर्मण्यवादी विचारक, अनैतिकता, अस्पृष्ता, अन्धविश्वास, अनैतिकता व रुढीवादी अवधारणाओं के घोर विरोधी, स्त्री शिक्षा व समानता के पोषक किसानों व श्रमिकों के हितेषी थे।

19 वीं शताब्दी में महात्मा फुले ने समाज में व्याप्त निषेदों, निर्याेग्ताओं, असमानता, छुआछूत, शोषण व उत्पीडन के विरुध संघर्ष प्रारम्भ किया। उन्होंने निर्धन वर्ग एवं महिलाओं मे शिक्षा प्रसार हेतु सक्रिय प्रयास किये। स्कूल खोला अपनी निरक्षर पत्नि सावित्री बाई फुले को देष की प्रथम महिला शिक्षिका बनाया। उन्होने स्पष्ट कहा था ’’शिक्षा के अभाव में बुद्धि का विनाश हो जाता है, बुद्धि के अभाव मे नेैतिकता का पतन हो जाता है, नैेतिकता के अभाव में प्रगति रुक जाती है, प्रगति और धनाभाव के कारण पिछडे व निर्धन वर्गाे का पतन होता रहता है, सभी  दुखों का कारण अशिक्षा है।’’

उन्नीसवी शताब्दी में देश में एक और रुढीवादियों तथा प्रतिक्रियावादियों का शक्तिशाली तबका था जो प्राचीन परम्पराओं एवं रीति रिवाजों के अनुकरण के लिए  मजबूर करता था दूसरी ओर प्रगतिषील लोगों का समूूह था जो सामाजिक बुराईयों को दूर करने व उन्नतिशील विचारों को ग्रहण करने पर जोर देता था। सामाजिक  नियतिवाद व सामाजिक गत्यात्मवाद में संघर्ष था। उससे मानववादी विचारधारा का उदय हुआ, समता और धर्म निरपेक्षता की भावनाओं का संचार हुआ। आदमी के सम्मान व मानवीय कल्याण के लिए अनुकूल स्थितियां पैदा हुई। दासता, सामाजिक आर्थिक शोषण, छुआछूत, बाल विवाह, शिशु हत्या,बेगार आदि सामाजिक बुराईयोंके विरुद्ध लोेगों की भावना जागृत होने लगी थी।  

महात्मा बुद्ध के बाद ज्योतिबा फुले, महात्मा गाँधी, बाबा साहब अम्बेडकर, रवीन्द्रनाथ टैगोर, जवाहरलाल नेहरु आदि प्रमुख मानववादियों ने लौकिक विचारों को नया मौड दिया। मराठी भाषियों ने महात्मा फुले जैसे सामाजिक क्रान्ति के अग्रणी व्यक्ति को अपने प्रान्त व अपनी भाषा तक सीमित रखा, फलस्वरुप उनकी कीर्ति महाराष्ट्र प्रान्त में ही बंधी रही। जब हिन्दी व अंग्रेजी भाषा में उनका साहित्य सामने आया तो उनके विचारो को उत्तर भारत में भी बढावा मिला। राजस्थान में उनके विचोरो को फैलाने का श्रेय गांधीवादी श्री अशोक गहलोत को है, जिससे दलितों व पिछड़ों में महात्मा फुले द्वारा स्थापित आदर्शों को अपनाने व आगे बढाने का कार्य प्रारम्भ हुआ।

डा. अम्बेडकर ने उनकेा अपना गुरु माना है और कहा है कि ’’ज्योतिबा फुले की नीति, उनका तत्वज्ञान और उनके कार्यक्रम को लेकर ही आगे बढा जासकता है।’’ सहस्त्रों वर्षाे से उत्पीडित शोषितों के जीवन में नया प्रकाश फैलाने के लिए अल्पायु में ही ज्योतिराव अकेले चल पडे थे, केवल जीवन संगीनी का ही उन्हें  सम्बल प्राप्त था। महात्मा गाँधी ने कहा था ‘‘असली महात्मा तो महात्मा ज्योतिराव फुले ही है।’’ ज्योतिराव फुल ने हिन्दु समाज की पिछडी व छोटी जातियों को उच्च वर्णाे के प्रति उनकी गुलामी की भावना के सम्बन्ध में जागृत किया और स्थापित किया कि सामाजिक लोकतंत्र की स्थापना महत्वपूर्ण है।

बाबू जगजीवनराम ने कहा था ’’महात्मा फुले दलित चेतना की दिशा में ज्योति पुरुष थे, दलितो व पिछड़ों के आंगन मे अकेले हजारों वर्ष के अंधेरे को चीर कर सूर्यरथ खींचकर लाये थे। निम्नवर्गाे के लोगों में शिक्षा की किरणें फुले ने ही बिखेरी। महात्मा फुले भारत की बुनियादी क्रान्ति के प्रथम महामानव थे इसलिए वे महात्मा बुद्ध, महावीर, मार्टिल लाथूर, नानक आदि के उत्तराधिकारी थे। उनका समर्पित व संघर्षमय जीवन आज के समय भी प्रेरणा का स्त्रोत है।’’

महात्मा फुले केवल समाज सुधार करना नही चाहते थे बल्कि वे एक वर्गहीन, जातिविहीन, शोषण मुक्त समाज का निर्माण करना चाहते थे, सामाजिक क्रांति करना चाहते थे। तत्कालीन शोषित, उपेक्षित जनता को गुलामी व शोषण की प्रतीती कराकर आत्म सम्मान जगाना चाहते थे। मानसिक दासता पर उन्होंने प्रहार किया और जागृति पैदा की। उनका चिंतन व्यवहारिकता के धरातल पर आधारित थां वे आर्य व अनार्य के भेद को समाप्त करना चाहते थे जब कि आज के दलित हितेषी कहलाने वाले लोग आर्य व अनार्य का भेद बनाये रखना चाहते है उसको बढाना चाहते है। वे मजदूर आन्दोलनों के भी जनक थे।

उनका सिद्धान्त था ईश्वर सभी में व्याप्त है प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर भक्ति का अधिकार है, उसके लिए मध्यस्थता की आवश्यकता नही है। मनुष्य की श्रेष्ठता का प्रमाण उसकी जाति नही वरन उसके गुण हैं। समाज में स्त्री पुरुष का दर्जा  बराबर है। ऊंच नीच की भावना व्यर्थ है। वे अछूतोद्धार, विधवा पुनर्विवाह के प्रबल समर्थक थे, अज्ञान जाति भेद, स्त्रियों की दासता के विरोधी, स्त्री शिक्षा के समर्थक, सामाजिक क्रांति के अग्रदूत व समता आन्दोलन के जनक थे। वे सामाजिक क्रान्तिकारी सुधारको की श्रेणी से महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। उन्होंने पद दलित नारी तथा पिछडे, निर्धन मजदूर, किसान दलित समाज को सामाजिक दासता से मुक्त कराने का दृढ संकल्प ले कर कार्य किया और सामाजिक क्रान्ति के पुरोधा बन गये।

डॉ. सत्यनारायण सिंह

उनका कार्य व्यवहार आज के दलित व पिछडे नेताओं की तरह नही था जो राजनीतिक लाभ के कारण सब्जबाग दिखा कर उनके हितों के विरुद्ध आचरण करते है। समग्र सामाजिक क्रान्ति के प्रथम दृष्टा के सिद्धांतो पर चलने की बजाय सामाजिक असमानता बढाते है। ये नेता आकारों की पूजा करके विचारों की उपेक्षा करने की परम्परा को बढातेे रहे है। सामाजिक ,आर्थिक पिछडेपन, वर्ग संघर्ष व असमानता व जाति भेद को  भी बढावा  देते  हैं।

लेखक - डॉ. सत्यनारायण सिंह, रिटायर्ड आई.ए.एस.

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