क्यों टूट रहे हैं आज परिवार

जीवन अनमोल है इसे आत्महत्या कर नष्ट नहीं करें !

मास्क लगाकर रहें ! सोशल डिस्टेंसिंग बनाए रखें !

संस्कार सृजन राम गोपाल सैनी

जयपुर (संस्कार सृजन) परिवार एक ऐसी सामाजिक संस्था है जो आपसी सहयोग व समन्वय से क्रियान्वित होती है और जिसके समस्त सदस्य आपस में मिलकर अपना जीवन प्रेम, स्नेह एवं भाईचारापूर्वक निर्वाह करते हैं। संस्कार, मर्यादा, सम्मान, समर्पण, आदर, अनुशासन आदि किसी भी सुखी-संपन्न एवं खुशहाल परिवार के गुण होते हैं। कोई भी व्यक्ति परिवार में ही जन्म लेता है, उसी से उसकी पहचान होती है और परिवार से ही अच्छे-बुरे लक्षण सीखता है। परिवार सभी लोगों को जोड़े रखता है और दुःख-सुख में सभी एक-दूसरे का साथ देते हैं।

लेखक - उदयवीर सिंह यादव

कहते हैं कि परिवार से बड़ा कोई धन नहीं होता हैं, पिता से बड़ा कोई सलाहकार नहीं होता हैं, मां के आंचल से बड़ी कोई दुनिया नहीं, भाई से अच्छा कोई भागीदार नहीं, बहन से बड़ा कोई शुभ चिंतक नहीं, इसलिए परिवार के बिना जीवन की कल्पना करना कठिन है। एक अच्छा परिवार बच्चे के चरित्र निर्माण से लेकर व्यक्ति की सफलता में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

किसी भी सशक्त देश के निर्माण में परिवार एक आधारभूत संस्था की भांति होता है, जो अपने विकास कार्यक्रमों से दिनों दिन प्रगति के नए सोपान तय करता है। कहने को तो प्राणी जगत में परिवार एक छोटी इकाई है लेकिन इसकी मजबूती हमें हर बड़ी से बड़ी मुसीबत से बचाने में कारगर है। परिवार से इतर व्यक्ति का अस्तित्व नहीं है इसलिए परिवार के बिना अस्तित्व के कभी सोचा नहीं जा सकता। लोगों से परिवार बनता हैं और परिवार से राष्ट्र और राष्ट्र से विश्व बनता हैं।


परिवार दो प्रकार के होते हैं। एक एकाकी परिवार और दूसरा संयुक्त परिवार। भारत में प्राचीन काल से ही संयुक्त परिवार की धारणा रही है। संयुक्त परिवार में वृद्धों को संबल प्रदान होता रहा है और उनके अनुभव व ज्ञान से युवा व बाल पीढ़ी लाभान्वित होती रही है। संयुक्त पूंजी, संयुक्त निवास व संयुक्त उत्तरदायित्व के कारण वृद्धों का प्रभुत्व रहने के कारण परिवार में अनुशासन व आदर का माहौल हमेशा बना रहता है। लेकिन बदलते समय में तीव्र औद्योगीकरण, शहरीकरण, आधुनिकीकरण व उदारीकरण के कारण संयुक्त परिवार की परंपरा चरमराने लग गई है। वस्तुत: संयुक्त परिवारों का बिखराव होने लगा है।

एकाकी परिवारों की जीवनशैली ने दादा-दादी और नाना-नानी की गोद में खेलने व लोरी सुनने वाले बच्चों का बचपन छीनकर उन्हें मोबाइल का आदी बना दिया है। उपभोक्तावादी संस्कृति, अपरिपक्वता, व्यक्तिगत आकांक्षा, स्वकेंद्रित विचार, व्यक्तिगत स्वार्थ सिद्धि, लोभी मानसिकता, आपसी मनमुटाव और सामंजस्य की कमी के कारण संयुक्त परिवार की संस्कृति छिन्न-भिन्न हुई है।


गांवों में रोजगार का अभाव होने के कारण अक्सर एक बड़ी आबादी का विस्थापन शहरों की ओर गमन करता है। शहरों में भीड़भाड़ रहने के कारण बच्चे अपने माता-पिता को चाहकर भी पास नहीं रख पाते हैं। यदि रख भी ले तो वे शहरी जीवन के अनुसार खुद को ढाल नहीं पाते हैं। गांवों की खुली हवा में सांस लेने वाले लोगों का शहर की संकरी गलियों में दम घुटने लगता है। 

इसके अलावा पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव बढ़ने के कारण आधुनिक पीढ़ी का अपने बुजुर्गों व अभिभावकों के प्रति आदर कम होने लगा है। वृद्धावस्था में अधिकतर बीमार रहने वाले माता-पिता अब उन्हें बोझ लगने लगे हैं। वे अपने संस्कारों और मूल्यों से कटकर एकाकी जीवन को ही अपनी असली खुशी व आदर्श मान बैठे हैं।


देश में 'ओल्ड एज होम' की बढ़ती संख्या इशारा कर रही है कि भारत में संयुक्त परिवारों को बचाने के लिए एक स्वस्थ सामाजिक परिप्रेक्ष्य की नितांत आवश्यकता है। वहीं महंगाई बढ़ने के कारण परिवार के एक-दो सदस्यों पर पूरे घर को चलाने की जिम्मेदारी आने के कारण आपस में हीन भावना पनपने लगी है।

कमाने वाले सदस्य की पत्नी की व्यक्तिगत इच्छाएं व सपने पूरे नहीं होने के कारण वह अलग होना ही हितकर समझ बैठी है। इसके अलावा बुजुर्ग वर्ग और आधुनिक पीढ़ी के विचार मेल नहीं खा पाते हैं। बुजुर्ग पुराने जमाने के अनुसार जीना पसंद करते हैं तो युवा वर्ग आज की स्टाइलिश लाइफ जीना चाहते हैं। इसी वजह से दोनों के बीच संतुलन की कमी दिखती है, जो परिवार के टूटने का कारण बनती है। 


यदि संयुक्त परिवारों को समय रहते नहीं बचाया गया तो हमारी आने वाली पीढ़ी ज्ञान संपन्न होने के बाद भी दिशाहीन होकर विकृतियों में फंसकर अपना जीवन बर्बाद कर देगी। अनुभव का खजाना कहे जाने वाले बुजुर्गों की असली जगह वृद्धाश्राम नहीं बल्कि घर है। छत नहीं रहती, दहलीज नहीं रहती, दर-ओ-दीवार नहीं रहती, वो घर घर नहीं होता, जिसमें कोई बुजुर्ग नहीं होता।

बुजुर्ग वर्ग को भी चाहिए कि वह नए जमाने के साथ अपनी पुरानी धारणाओं को परिवर्तित कर आधुनिक परिवेश के मुताबिक जीने का प्रयास करें। ऐसा कौन-सा घर परिवार है जिसमें झगड़े नहीं होते? लेकिन यह मनमुटाव तक सीमित रहे तो बेहतर है। मनभेद कभी नहीं बनने दिया जाए।


हम सभी किसी ना किसी रूप में जरूरतमंदों की सेवा कर सकते हैं | पड़ोसी भूखा नहीं सोए इसका ध्यान रखें |

" संस्कार सृजन " कोरोना योद्धाओं को दिल से धन्यवाद देता है |

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