समाज चरित्र दर्शन-विशेष लेख

जीवन अनमोल है , इसे आत्महत्या कर नष्ट नहीं करें !

सुबह की शुरुआत माता-पिता के चरण स्पर्श से करें !

संस्कार सृजन राम गोपाल सैनी 

जयपुर (संस्कार सृजन) "यत्र नारी पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवताः" ऐसा मनुस्मृति में महर्षि मनु ने लिखा है जो स्वयं ब्रह्मा जी के मानस पुत्र माने जाते हैं साथ ही हमारे अनेक धार्मिक ग्रंथो में भी इसकी पुष्टि की है। फिर हमारे देश एवं समाज में एक महिला को सिर्फ घर की चारदीवारी की शोभा और भोग विलास की वस्तु मानने वाली विचारधारा का जन्म कहां से पनपा है। क्या हमारी महिलाओं को पुरुषों के सामान अधिकार और हक मिलें हैं? क्या समाज,परिवार और कुल की इज्जत का ठेका सिर्फ औरत के सिर ही है। अगर किसी का बेटा शराब पीता है, देर रात पार्टी कर के घर आता है, यहां तक कि दूसरों की बहन बेटियों पर भद्दे कमेंट करें या गलत हरकत करे तो ये सब चलता है ज्यादा से कोई बहुत ही शरीफ परिवार का लड़का है तो थोड़ी बहुत डांट फटकार लगाई जा सकती है। परंतु इसका 10% भी अगर लड़की करने की सोचे तो सात पीढ़ियों के दाग लग जाता है। मूछें तन जाती हैं, तलवारें खींच जाती हैं,ऐसा क्यों?

एक लड़का किसी का रेप कर देता है या मर्डर कर देता है तो उसके घरवाले,रिश्तेदार सभी मिलकर उसके लिए अच्छे से अच्छा वकील करेंगे उसको छुड़वाएगे। कुछ दिन बाद उसकी शादी भी कोई न कोई कर देता है और वो एक सामान्य इज्जतदार की जिंदगी जीने लग जाता है। परंतु अगर किसी की लड़की के साथ ऐसा हो जाए तो सबसे पहले उसके घरवाले भी उसको स्वीकार करने से कतराते हैं, ऐसा दोगलापन क्यों?

हमारे देश में  बड़े खानदानों राजघरानों और अगड़ी जाति के लोगों में एक से अधिक पत्नियां रखने का रिवाज शुरू से ही रहा है। परन्तु महाभारत की द्रोपदी को छोड़कर कभी किसी महिला के एक से अधिक पति होने की बात न सुनी न पढ़ी और हम में से किसी ने आज तक नहीं देखी। जबकि एक से अधिक पत्नियां मेरे कई मित्रों और परिचितों के भी हैं।

हम देखते हैं कि कई बार नई-नई शादी होती है और दुर्भाग्यवश वह लड़का किसी दुर्घटना या बीमारी के कारण कालग्रास बन जाता है तो मेरा ये महान समाज उस नवविवाहिता लड़की पर सारा दोष मढ़ने लग जाता है। अपसुकूनी है,डायन है आते ही खा गई, घर के चिराग की ऐसे बातें मैयत के रोने में ही शुरू हो जाती हैं जबकि उसका प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से कोई दोष नहीं होता है। परन्तु उस पर क्या बीत रही है ये कोई नहीं जानना चाहता। लोग तो यहां तक भी कहते सुने हैं कि इसका क्या मरा है इसको तो हजार खसम मिल जायेगें, बहन का भाई और मां बाप का बेटा मरा है। कोई नहीं जानना चाहता कि उसके दिल पर क्या बीती है। कुछ समय पहले समाज में विधवा विवाह बिल्कुल भी नहीं होता था।चाहे कोई एक रात की दुल्हन ही विधवा क्यों न बनी हो।

वैसे भारत में विधिवत रूप से पहली विधवा विवाह ईश्वर चंद्र विद्यासागर की देखरेख में, 7 दिसंबर 1856 को कोलकाता में हुआ | यह विवाह हिंदू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, 1856 के लागू होने के बाद हुआ, जो ईश्वर चंद्र विद्यासागर के अथक प्रयासों का ही परिणाम था | इस ऐतिहासिक घटना के दौरान, 14 वर्षीय विधवा तारासुंदरी देवी का विवाह 24 वर्षीय द्वारकानाथ विद्याभूषण से हुआ था, जो स्वयं विद्यासागर के पुत्र थे।

कानूनी रूप से हमारे देश में पुनर्विवाह करना सही है। परन्तु आज भी हमारे समाज में बहुत सी विडम्बनाएं है। आज भी लोगों की तरह तरह की बातें महिलाओं के जीवन में आने वाली खुशियों पर अंकुश लगाने का प्रयास करती हैं। आज भी अगर किसी की जवान बीवी की मौत हो जाए तो उसकी शादी की चर्चा श्मशान घाट में ही शुरू हो जाती है । उसकी बैठक में आने वाले सभी रिश्तेदार कहीं न कही से उसके रिश्ते की कांटी बैठाने की कोशिश में रहते हैं और थोड़े ही दिनों में फिर से वह अपनी नई जिंदगी शुरू कर देता है।

कुछ लोगों के बच्चे होने के बाद भी, यहां तक कि मैं कई ऐसे लोगों को व्यक्तिगत जानता हूं जिनके बच्चे शादीशुदा होते हैं फिर भी वो दूसरी,तीसरी शादी कर लेते हैं और ये समाज भी उनको ये कहकर सपोर्ट करता है कि बुढ़ापे में कोई तो सहारा देने वाली होनी चाहिए। कुछ लोग दूसरी शादी के लिए मना भी करते हैं तो समाज के लोग उसे ऐसा करने को प्रोत्साहित करते हुए देखे व सुने हैं। परन्तु यदि किसी महिला के एक भी बच्चा है चाहे बच्चा पति की मौत से समय उसके गर्भ में ही हो। वह कभी दूसरे विवाह की सोच भी नहीं सकती। उसकी कल्पना मात्र भी उसको नरक का पात्र बना देती है और हमारे समाज का घिनौना और भयानक चेहरा और चरित्र तो अब सामने आएगा जब ये समाज ,परिवार और रिश्तेदार उस महिला की सांस लेने की भी आजादी भी छीनते दिखाई देते हैं।

मैं ऐसी बहुत महिलाओं को जानता हूं आपने भी अपने घर,आसपड़ोस या रिश्तेदारी में ऐसी घटनाएं देखी होंगी जब कम उम्र में ही शादी के बाद एक नववधू एक दो बच्चों की मां बनकर विधवा हो गई हो। जब वह ये भी नहीं समझती कि आज जो उसे उन बच्चों को संभालने का वास्ता दे रहे हैं कल उसकी आजादी ,जिंदगी का सुख चैन सब छीनने लगेंगे।

जैसे तैसे कर के वह अपने बच्चों की ममता को आधार बना कर अपना जीवन जीने का प्रयास करती है। तभी शुरू होती हैं उस दोगले समाज को बंदिशे। असली परेशानी उसके घर परिवार से शुरू होती हैं। एक वक्त था जब एक ससुर अपनी बहु को बेटी,जेठ अनुजसुता को बहन और देवर मां मानता था। 

रामचरित मानस में एक दृष्टांत है...जब रावण सीताजी का हरण करके ले जाता है तो सीताजी अपने आभूषण रास्ते में निशानी के लिए फेंकती जाती है। जब श्रीराम सीताजी का कंगन दिखाते हुए कहते हैं कि देखो,"लक्ष्मण क्या ये कंगन मेरी सीता के हैं।"

लक्ष्मण लाचार सा खड़ा रहता है और रुंधे हुए स्वर में कहता है,ज्येष्ठ श्री मैंने कभी माता सीता को चरणों से ऊपर देखा ही नहीं तो मैं कंगन कैसे पहचान सकता हूं। फिर आगे चल कर जब पायल मिलती है तो लक्ष्मण जी तुरंत पहचान जाते हैं। परंतु आज का परिदृश्य बिल्कुल बदल चुका है। सभी लोग एक जैसे नहीं होते आज भी कुछ लक्ष्मण जैसे देवर और पिता सामान ससुर मौजूद हैं। लेकिन मैं समाज की आम धारणा के बारे में लिख रहा हूं जिस पर अनेक लोग मुझे भी गालियां देंगे,परंतु ये आज की हकीकत है आज का पुरुष हवस का इतना वशीभूत हो चुका है कि हम आए दिन पुत्री,बहन हर तरह के रिश्ते का चीरहरण होने की खबर पढ़ते ओर देखते हैं। 

सबसे पहले विधि का कहर झेलने वाली उस अभागिनी अबला पर उसके घर परिवार के लोग भूखे भेड़िया वाली हिंसक कुदृष्टि डालते हैं। अगर वो किसी के चंगुल में फंस गई तो फिर ये समाज उसका जीना हराम कर देगा। और अगर वो घर से जैसे तैसे बच गई तो फिर गली,नुक्कड़,घेर पर रोज बैठकर दूसरे की बहन बेटियों पर डोरे डालने वाले नकारा लोग घूरना शुरू कर देते हैं। उनके अलावा कुछ समाज सेवक और मसीहा का रूप धरकर आने वाले फरिश्ते के वेश में रहने वाले शिकारी आखेट के लिए घात लगाए रहते हैं। घर परिवार वाले उसके जीवन में हर तरह से समस्याएं खड़ी करते हैं कारण वो जो चाहे बताते हैं पर उनका असली मोटिवेशन एक ही होता है कि वह अपना जीवन उनके इशारे पर जीने से इनकार कर देती है। फिर अगर उसने किसी से थोड़ी सी मदद मांगली या हंस मुस्कराकर बतिया ली तो बस, सीधा अटैक उसके चरित्र पर होता है और सबसे पहला वार उसके घर के लोग ही करते हैं। वह न किसी से खुलकर बात कर सकती, न हंस सकती, न अच्छा खा पी सकती, न ओढ पहन सकती ,न कहीं घूमने या रिश्तेदारी में आ जा सकती। यानी समाज के अनुसार चले तो वह एक मात्र जिंदा लाश बनकर जिए,जो सांस तो ले सकती है पर उस पर मर्जी किसी और की हो और अगर वो इन बंदिशों से आजादी के लिए फड़फड़ाने की कोशिश करे या गुलामी की इन बेड़ियों को तोड़ने का दुस्साहस करें तो बस पूरी कायनात उसको गलत साबित करने पर उतारू हो जाती है ओर इस कार्य में उसके जन्मदाता मां बाप भी उसके साथ खड़े नहीं हो सकते।

अब मैं बात करता हूं चरित्र पतन या इज्जत की। शहर के एक नुक्कड़ पर बसी वैश्या को हर कोई इज्जतदार गाली देकर निकलता है परन्तु कोई ये नहीं जानना चाहता कि आखिर अपनी मां की कोख से पाक जन्मी एक लक्ष्मी स्वरूपा किसी की बेटी,बहन,भार्या,बहु , मां से एक एक वैश्या बनने का सफर कैसे तय हुआ। कोई भी महिला वैश्या या कुलटा जब तक नहीं बन सकती जब तक कोई इज्जत का ठेकेदार पुरुष का चरित्र पतन नहीं हो जाता। सबसे पहले एक मर्द का चरित्र गिरता है तब जाकर कोई महिला गलत होती है और हमारे समाज ने एक नाजुक  अबला को इज्जत का जिम्मेदारी दे दी जैसे ये काम सिर्फ उसी का हो। 

एक और बात आज जब एक शादीशुदा पुरुष और महिला अपने जीवनसाथी को धोखा देकर दूसरे लोगों के साथ रंगरेलिया मनाते हैं। अधिकतर शादीशुदा पुरुष , यहां तक कि साथ काम करने वाले सहकर्मी या कुछ अधिकारी भी महिलाओं के प्रति नकारात्मक मानसिकता का ख्वाब पालते हैं तो क्या एक विधवा महिला को वह सब पाने का अधिकार नहीं है जिसकी वह हकदार है। क्या वह इंसान नहीं है ,क्या उसको भूख प्यास नहीं लगती,उसके लिए सूर्य पूर्व की बजाय किसी और दिशा में उदय होता है। उसकी भी वही तमन्नाएं ,इच्छाएं होती हैं जो एक आम आदमी की होती हैं जिनको वह अपनी ममता के वशीभूत होकर कुर्बान कर देती है। आखिर कितनी कुर्बानी  लोगे आप लोग एक  नारी से। एक तरफ हम उसे दुर्गा,लक्ष्मी और देवी मानते हैं और दूसरी तरफ हर जुर्म हर तरह का अत्याचार उस पर करते हैं।

किसी कवि ने कहा हैं कि - "नार नहीं नो रंगी हूं,नो रंगी नहीं सौ रंगी हूं,सौ  रंगी नहीं बहु रंगी हूं। चाहूं तो पूरे परिवार की इज्जत रख लूं नहीं तो खुद नंगी की नंगी हूं।"

मैं समाज से सिर्फ ये कहना चाहता हूं कि भारतीय समाज सभी नागरिकों को जीने का सामान अधिकार देता है। जाति ,धर्म,वर्ग या लिंग के आधार पर किसी तरह का भेदभाव नहीं करना चाहिए। देश विदेशों में और हमारे देश में भी बड़े राजनेताओर सेलिब्रिटियों के पुत्र-पुत्री किसी को भी छोड़कर दूसरे के संग जीवन जीते हैं और कई कई जीवनसाथी बदलते रहते हैं। तो फिर हम मध्यवर्ग के लोग सभी मान्यताओं, परंपराओं की आड़ में इस तरह का दोगलापन क्यों करते हैं। हमको हमारे निजी स्वार्थ की बजाय हमारी बेटियों ओर बहुओं के जीवन और सुख दुख और खुशियों पर विचार करना चाहिए। (ये लेखक के अपने विचार हैं )

लेखक - अशोक मीना शेखपुरा, प्रधानाचार्य 

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