सत्संग की महक-लघुकथा

जीवन अनमोल है , इसे आत्महत्या कर नष्ट नहीं करें !

सुबह की शुरुआत माता-पिता के चरण स्पर्श से करें !

संस्कार सृजन राम गोपाल सैनी

जयपुर (संस्कार सृजन) दौलतपुर नाम का एक गांव था । उसमें दयाराम नाम का एक व्यक्ति रहता था । उसके पास पड़ौस में लोगों के नये - नये मकान धडल्ले से बनते चले जा रहे थे । जबकि उसके पास वही पुराना पुश्तैनी मकान था । मकान के बाहर गौरेया घोंसले बना देती थी | वह खीजकर उन्हें तोड़ फेंक देता था । वह जहाँ कहीं भी देवदर्शन के लिये जाता लोगों को पत्थर के छोटे - छोटे घर बनाते देखता था । उसके पीछे यही एक मान्यता थी कि जो यहाँ घर बनाता है उसके भी भविष्य में शीघ्र ही मकान बन जाता है । सो दयाराम भी ऐसा ही करने लगा । किन्तु कुछ वर्ष बीत गए उसकी यह मुराद पूरी न हो सकी ।

गांव दौलतपुर के उत्तर में एक हनुमान मन्दिर था जो बरगद और पीपल के विशाल वृक्षों से आच्छादित था । वहीं फूलों की सुन्दर बगीची थी जिसकी महक हवा के झौंके के साथ आती रहती थी । उसी मन्दिर में एक सन्त रहते थे । नाम था उनका दया मूर्ति । वह स्वयं पाकी थे । दिन में एक ही समय भोजन करते थे । एक समय मिल जाता तो फलाहार कर लिया करते थे । सुबह वे स्नानादि पूजन आरती से निवृत्त होकर पौधों को जल देते थे । पक्षियों को दाना डालते थे और गौ माताओं को घास खिलाया करते थे । मध्याह्न में भोजन करते थे ।

शाम आरती के पश्चात् कुछ लोग उनके पास बैठ जाया करते थे । जहाँ कथा प्रसंग - प्रवचन आदि चलते रहते थे । महात्मा दयामूर्ति मधुर भाषी और विनम्र थे । उनका यह स्वभाव गांव वालों को अभिभूत कर लेता था । गांव वालों की समस्यायें भी वे सुलझा दिया करते थे । वर्ष में दो चार बार भण्डारे और रामकथा हो जाया करती थी । एक ओर उनके सतसंग की महक थी तो दूसरी ओर खिलते हुए पुष्पों की ।

दयाराम भी एक रोज उनके प्रवचन का लाभ लेने दयामूर्ति के पास जा बैठा । प्रवचन समाप्ती के पश्चात् और लोग तो महात्मा को प्रणाम कर चले गए पर दयाराम वहीं रुका रहा । दयामूर्ति ने पूछा - कहो भई कैसे उदास लग रहे हो ? कहो "

दयाराम बोला महात्माजी मैंने कई देव स्थानों पर जा जाकर घर बनाये किन्तु मेरे अभी तक कोई घर नहीं बन पाया । ना बैंक से लोन मिला । पड़ौसी आये दिन लड़ झगड़कर रुकावटें डालते रहते हैं ।

दयामूर्ति बोले धीरज रखो । निराश मत हो । एक उपाय कर लो । एक छोटी सी मटकी लेकर आओ । वह ले आया । इसे सामने जो नीम का वृक्ष दिखाई दे रहा है उसकी तीन मिली हुई टहनियों पर इसे आड़ा रख कर चले जाओ ।

लगभग सात आठ माह के पश्चात् दयाराम के बैंक का लोन भी पास हो गया । पड़ोसी भी सीधे हो गये । करीबन एक वर्ष पश्चात् दयाराम का मकान बन गया । तब वह महात्माजी का आभार व्यक्त करने पहुंचा । उनके चरण स्पर्श कर बैठ गया । बोला - आपके आशीर्वाद से मेरा नया मकान बन गया है । अरे वाह , बहुत बहुत बधाई भाई ! महात्मा बोले ।

उधर देखो उस मटकी की तरफ वहाँ छोटे - छोटे चिड़िया के बच्चे चहक रहे हैं उनकी माँ उनको दाना खिला रही है । जी हाँ महाराज जी । अरे भाई तुम दूसरों का घर बनाओगे तो तुम्हारा घर भी अवश्य ही बन जायेगा । दयाराम ने पूर्व में तोड़े गये घोंसलों पर प्रायश्चित किया । नये मकान के सामने उसने चार लकड़ी के चिड़िया घर बना कर लटका दिये । गर्मी में परिण्डे भी बाँध दिया करता था । रोज दाना डालने और पेड़ों को पानी देने मन्दिर जाया करता था । उसके स्वभाव में दया भाव और विनम्रता आ चुकी थी । उसके न ये मकान की छत पर उसके बच्चे उछल कूद कर खेल रहे थे । मन्दिर से सत्संगति के फूलों की महक आ रही थी । दयाराम महात्मा के जादुई स्वभाव से वास्तव में ही दयाराम बन चुका था ।

सत्य ही है - शठ सुधरहिं सतसंगति पाई ।

पारस परस कुधातु सुहाई ॥

कहानी का उद्देश्य - सत्संगति का लाभ, मूक प्राणियों के प्रति दया भाव, पक्षी संरक्षण, विनम्रता

लेखक : राजेन्द्र प्रसाद शान्तेय, झालावाड़, राजस्थान

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