जीवन अनमोल है , इसे आत्महत्या कर नष्ट नहीं करें !
सुबह की शुरुआत माता-पिता के चरण स्पर्श से करें !
संस्कार सृजन @ राम गोपाल सैनी
आज की पीढ़ी की स्क्रीन पर व्यस्तता व पढ़ाई के शार्टकट तरीकों, अर्थात सीरीज़ व पासबुक बेस पढ़ाई ने पठन संस्कृति, सृजन व कल्पना के संसार को तो लगभग खत्म ही कर दिया है, साथ में पुस्तकालय व किताबों के कोनों के सितारे भी कुछ गर्दिश में चल रहे हैं। विगत कुछ वर्षों से शिक्षारूपी मंदिरों पर सीरीज़ रूपी दंश व अंधकार ने अपना साम्राज्य बड़े प्रचंड स्वरूप में फैला रखा है। हालात यह है कि स्नातक व स्नातकोत्तर सप्ताहधारी उपाधि उपासकों के साथ-साथ अब तो सप्ताहधारी शिक्षक व वक़ील भी बड़ी मात्रा में मिल रहे हैं, बस अब तो सप्ताहधारी डाॅक्टर, इंजीनियर और सीए देखने की अभिलाषा बाक़ी है, हो सकता है किसी-किसी विकसित क्षेत्र में इसके शुभारंभ की सुगबुगहाट भी हो गयी हो, कुछ कह भी नहीं सकते, क्योंकि श्रद्धेया श्रीमती वनवीक सीरीज़ बड़ी ताक़तवर है।
शिक्षा के क्षेत्र में इसके दख़ल के आलम की बानगी तो यहां तक है कि- आपश्री हर हाथ तक और परीक्षा के द्वार तक पहुंचने की पूर्ण क्षमता रखती है। बहरहाल कहिन यह है कि आज का विद्यार्थी फटाफटी-शिक्षा वाले इन व्यापारियों से भी दो क़दम आगे हैं, परीक्षा से ठीक दो दिन पहले सौ के पत्ते से नीचे ख़रीद कर, अपने ज्ञान व कौशल की जननी को परीक्षा केन्द्र के आसपास के पेड़ों व छज्जों पर विदाई स्वरूप में स्थापित कर देता है। यक्ष सवाल यह है कि- क्या शिक्षा के आंगन में ग़र्दखाने बने पुस्तकालय फिर से महकेंगे ? क्या क़िताबों से संदर्भित नोट्स फिर से दिखाई देंगे ? दुआ करते हैं ऐसा हो जाए, पर दुआ के दौर में भी आख़िर में दिमाग़ एक और सवाल दाग़ जाता है कि विद्यार्थी तो साप्ताहिकी खरीदता है, पर परीक्षा में उसी का ज्ञान कैसे आ जाता है..?
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लेखक : डाॅ. जितेन्द्र लोढ़ा |
कारण चाहे जो भी बन रहे हो, पर पठन संस्कृति व पुस्तकालयों की रौनक अब धीरे-धीरे सरकती व दरकती दिखायी दे रही है। हालाँकि, हम एक ऐसे युग में रह रहे हैं, जिसे या तो इंटरनेट का युग, स्मार्टफोन का युग या प्रौद्योगिकी और इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स जैसे आई-पैड, किंडल आदि के युग के रूप में वर्णित किया जाता है। कहने का मतलब यह है कि आधुनिक तकनीक और इसके द्वारा लाई गई क्रांति ने जीवन के सभी क्षेत्रों की कार्यात्मक गतिविधियों को प्रभावित किया है, दुनिया में हर जगह मनुष्यों में कुछ कठोर जीवन शैली में बदलाव के लिए मजबूर किया है। एक टीचर एजुकेटर होने के नाते मैंने महसूस किया है कि छात्रों में अब क़िताबें पढ़ने की ओर कोई झुकाव नहीं है। आज के छात्रों के बीच चर्चा के मुख्य मुद्दे सोशल मीडिया, आॅन लाइन गेम व पठन के कामचलाऊ व शार्टकट तरीके हैं।क़िताबों व अपने नोट्स बनाने की बात करने वाले शायद ही कुछ विरले छात्र ही बचे हो। इंटरनेट व इंस्टेंट पढ़ाई व चढ़ाई के तरीकों की चाह ने पुस्तक पढ़ने की संस्कृति को लगभग अपने घुटनों पर ला दिया है, इसलिए आज का मुख्य काज तो यह बनता है कि विलुप्त हुई पठन संस्कृति को हम किस प्रकार पुनर्जीवित कर सकें, और इसके लिए सामूहिक प्रयास और गंभीर सोच के पर्यावरण की महती आवश्यकता महसूस हो रही है।
निःसंदेह पढ़ना एक अद्भुत आदत है, यह एक तरह की चिकित्सा है, जो न केवल अद्भुत काम करती है, बल्कि उन्मादी मन और व्यथित नसों के लिए एक आराम बाम के रूप में काम भी करती है। पढ़ने को सुखद प्रथाओं में से एक माना जाता है और किताबों के साथ समय बिताना या किताबों से दोस्ती करना, सबसे वफ़ादार दोस्ती में से एक माना जाता है, क्योंकि किताबें कभी भी पाठक को धोखा नहीं देती हैं, वे उतार-चढ़ाव में, सुख-दुःख में, संगति में और एकांत में उनके साथ सदैव बनी रहती हैं। इस संबंध में गैरीसन केलर ने ठीक ही कहा है कि- पुस्तक एक ऐसा उपहार है, जिसे आप बार-बार खोल सकते हैं, अर्थात स्पष्ट है- पढ़ना ज्ञान को बढ़ाता है, भाषा में सुधार करता है, हमें अपडेट रहने में मदद करता है, हमारी रचनात्मक और आलोचनात्मक सोच को बढ़ाता है, हमारी कल्पना शक्ति व विभिन्न विषयों और मुद्दों के प्रति निर्णयात्मक व स्पष्ट दृष्टिकोण प्रदान करता है, आख़िर में, लेकिन आख़िरी नहीं, पढ़ना तो हमारे विचारों को विभिन्न तरीकों से संप्रेषित करने और उनकी वास्तविक तस्वीर को समझने के लिहाज़ से हमारा 24×7 स्वरूप वाला एक मददगार सारथी है। शायद इसलिए विशेषज्ञ मानते हैं कि जो छात्र क़िताबें पढना पसंद करते हैं, वो जीवन भर प्रगतिशील रहेंगे, जानिए क्यों ?
पढ़ना जब क़ायदा है, तो उसके फ़ायदे भी निश्चित है, इस पर, किसी प्रकार का कोई संदेह नहीं होना चाहिए, वो इसलिए, क्यों कि पढ़ने व उसकी आदत बनाने से जो मिलता है, वो तो छात्रों के लिए, केवल और केवल चौतरफ़ा मुनाफ़े वाला सौदा है, फ़िर इससे दूर क्यों भागा जाए ? छात्रों द्वारा जितना ज्यादा पढ़ा जाएगा, उतना ही उनका ज्ञान बढ़ेगा, और जितना उनका ज्ञान बढ़ेगा, उतनी ही अधिक दुनिया को जानने और पहचानने की उनकी जिज्ञासा व क्षमता बढ़ेगी और फिर वो अपने आप प्रगति पथ की ओर चल निकलेंगे। पढ़ने से बच्चों के दिमाग़ का बायां हिस्सा जाग्रत व सक्रिय हो जाता है, जिसके चलते उनमें तार्किकता व भाषायी समझ का विकास स्वतः हो जाता है। पढ़ाई और क़िताबों की दोस्ती छात्रों में धैर्य और ध्यान की क्षमताओं को भी बढ़ती है, इसमें कोई शक नहीं, इस दिशा के जानकार तो यहां तक मानते हैं कि कोर्स से इतर क़िताबें पढ़ना, स्कूली पढ़ाई को और अधिक बेहतर व मजबूत बनता है। क़िताबों की दुनिया में इतने चमत्कारी शब्द और अनुभव समाए हुए है कि बिना उनकों जाने, हम हमारे अभिव्यक्ति संसार को जान-बूझकर छोटा कर देंगे, और हमारे जीवन में हमेशा बोलने की कला का टोटा ही बना रहेगा।
विलुप्त होती पठन संस्कृति व पढ़ाई के संकीर्ण व शार्टकट तरीकों वाले इस दौर व उसके शोर में, यह अमल होना चाहिए कि- बच्चों का रुख़ क़िताबों की तरफ़ हो, घर में क़िताबों का कोना फ़िर से ज़िन्दा हो जाए, संस्थानों के पुस्तकालयों की गर्द झाड़ दी जाए, ऑकलैंड जैसे शहर की तर्ज़ पर, अपने प्रयास व प्यार से न केवल क़िताबों को लिखा जाए, बल्कि उन्हें उपहार की विषयवस्तु बना कर, अपनों को दिया जाए, ताकि उनके सपनों व कल्पनाओं के संसार को पंख लग सकें, और हाँ, हो सके तो एक काम ज़रूर करना, रात को सोने से पहले बच्चों सहित घर का हर सदस्य स्क्रीन की दुनिया से हट कर, क़िताब या पत्रिका के कुछ पन्ने पलट कर सोए। इस कथन के आलोक में भवानी प्रसाद मिश्र यह कविता एकदम सही व समीचीन है- कुछ लिख कर सो, कुछ पढ़ कर सो, तू जिस जगह जागे सवेरा, उस जगह से कुछ बढ़ कर सो... पढ़ने और क़िताबों के इस ख़्याल की खनक में बस इतना ही, पर पुरज़ोर स्वरूप में कहा जा सकता है- बढ़ना है तो पढ़ना सीखो..!!
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
लेखक : डाॅ. जितेन्द्र लोढ़ा (प्रेरक वक्ता, स्तम्भकार व काॅलेज शिक्षा राजस्थान में टीचर एजुकेटर)
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