सभी निजी संपत्तियों का अधिग्रहण कर पुनर्वितरण का सरकार को अधिकार नहीं- संविधान पीठ

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संस्कार सृजन राम गोपाल सैनी

नई दिल्ली (संस्कार सृजन) सुप्रीम कोर्ट के 9 जजों की संविधान पीठ ने मंगलवार को ऐतिहासिक फैसला में कहा है कि ‘संविधान के अनुच्छेद 39बी के तहत सरकार के पास जनहित के लिए सभी निजी संपत्तियों को अधिग्रहित कर उसका पुनर्वितरण करने का अधिकार नहीं है। संविधान पीठ ने सुप्रीम कोर्ट में 32 साल से लंबित इस मामले में 7:2 के बहुमत से फैसला देते हुए कहा कि सभी निजी संपत्तियां ‘समुदाय के भौतिक संसाधनों का हिस्सा नहीं बन सकतीं, जिन्हें संविधान के अनुच्छेद 39(बी) के तहत राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों के अनुसार समान रूप से पुनर्वितरित करने के लिए बाध्य है।

मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली संविधान पीठ ने हालांकि फैसले में यह स्पष्ट किया है कि कुछ निजी संपत्तियां अनुच्छेद 39(बी) के अंतर्गत आ सकती हैं, बशर्ते वे ‘भौतिक संसाधन और ‘समुदाय के होने की योग्यताएं पूरी करती हों। संविधान पीठ ने सुप्रीम कोर्ट द्वारा 46 साल पहले पारित उस फैसले को पलट दिया, जिसमें समाजवादी विषय को अपनाया गया था और कहा गया था कि सरकार आम भलाई के लिए सभी निजी संपत्तियों को अपने कब्जे में ले सकती है। वर्ष 1978 में कर्नाटक सरकार बनाम रंगनाथ रेड्डी के मामले में जस्टिस कृष्णा अय्यर ने फैसला देते हुए कहा था कि ‘निजी संपत्तियों को सामुदायिक संसाधन माना जा सकता है। संविधान पीठ ने संजीव कोक मैन्युफैक्चरिंग कंपनी बनाम भारत कोकिंग कोल लिमिटेड और अन्य के मामले में पारित निर्णय को भी पलट दिया है, जिसमें जस्टिस अय्यर के मत का समर्थन किया गया था। संविधान पीठ में मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के अलावा न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय, बी.वी. नागरत्ना, सुधांशु धूलिया, जे.बी. पारदीवाला, मनोज मिश्रा, राजेश बिंदल, सतीश चंद्र शर्मा और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह शामिल थे। मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि मामले में तीन फैसले लिखे गए हैं। इनमें एक फैसला उन्होंने खुद और 6 अन्य जजों की ओर से लिखा है। जबकि न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना ने अलग लिखे उनके फैसले से आंशिक रूप से सहमति व्यक्त की और न्यायमूर्ति धूलिया ने अपने फैसले में पूरी तरह से असहमति जताई।

मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने बहुमत का फैसला पढ़ते हुए कहा कि ‘ हमारा मानना है कि निजी स्वामित्व वाले हर संपत्ति को समुदाय का भौतिक संसाधन नहीं माना जा सकता है क्योंकि वह भौतिक आवश्यकताओं की योग्यता को पूरा करता है। उन्होंने कहा कि निजी स्वामित्व वाली संपत्ति को समुदाय के भौतिक संसाधन के रूप में योग्य बनाने के लिए, उसे पहले कुछ परीक्षणों को पूरा करना होगा। बहुमत के फैसले में कहा गया कि संविधान के अनुच्छेद 39(बी) के तहत आने वाले संसाधन के बारे में जांच विशिष्ट होनी चाहिए और संसाधन की प्रकृति, विशेषताओं, समुदाय की भलाई पर संसाधन के प्रभाव, संसाधन की कमी और ऐसे संसाधन के निजी व्यक्ति के हाथों में केंद्रित होने के परिणामों जैसे कारकों की एक गैर-संपूर्ण सूची के अधीन होनी चाहिए। संविधान पीठ ने कहा है कि न्यायालय द्वारा विकसित सार्वजनिक ट्रस्ट सिद्धांत भी उन संसाधनों की पहचान करने में मदद कर सकता है जो समुदाय के भौतिक संसाधन के दायरे में आते हैं।

मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने कहा कि ‘संसाधनों के विभिन्न रूप हैं, जो निजी स्वामित्व वाले हो सकते हैं और स्वाभाविक रूप से पारिस्थितिकी या समुदाय की भलाई पर असर डालते हैं। साथ ही कहा कि ऐसे संसाधन अनुच्छेद 39(बी) के दायरे में आते हैं। साथ ही कहा कि उदाहरण के लिए, गैर-संपूर्ण रूप से, जंगलों, तालाबों, नाजुक क्षेत्रों, आर्द्रभूमि और संसाधन-असर वाली भूमि का निजी स्वामित्व हो सकता है। इसी तरह, स्पेक्ट्रम, वायु तरंगें, प्राकृतिक गैस, खदानें और खनिज जैसे संसाधन, जो दुर्लभ और सीमित हैं, कभी-कभी निजी नियंत्रण में हो सकते हैं। बहुमत के फैसले में कहा गया कि वितरण शब्द का एक व्यापक अर्थ है, राज्य द्वारा अपनाए जा सकने वाले वितरण के विभिन्न रूपों में संबंधित संसाधन को राज्य में निहित करना या राष्ट्रीयकरण शामिल हो सकता है। बहुमत के फैसले में यह भी कहा गया कि न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर के 1978 के फैसले में व्यक्त किए गए विचार एक विशेष आर्थिक विचारधारा से प्रेरित थे। साथ ही कहा कि संविधान निर्माताओं का इरादा देश को किसी विशिष्ट आर्थिक सिद्धांत से बांधने का नहीं था। संविधान पीठ ने कहा है कि अनुच्छेद 31सी केशवंद भारती में जिस सीमा तक बरकरार रखा गया था, वह लागू रहेगा। मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि मौजूदा समय के आर्थिक ढांचे में निजी क्षेत्र का काफी महत्व है, ऐसे में हर निजी संपत्ति को सामुदायिक संपत्ति नहीं कहा जा सकता है।

भौतिक संसाधनों को दो श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है- न्यायमूर्ति बीवी नागरत्ना :-

संविधान पीठ में शामिल जस्टिस बीवी नागरत्ना ने कहा कि है कि भौतिक संसाधनों को पहले दो बुनियादी श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। इनमें पहला राज्य के स्वामित्व वाले संसाधन जो राज्य के हैं जो अनिवार्य रूप से समुदाय के भौतिक संसाधन हैं, जिन्हें राज्य द्वारा सार्वजनिक ट्रस्ट में रखा जाता है। जबकि दूसरा निजी स्वामित्व वाले संसाधन। हालांकि उन्होंने स्पष्ट किया कि भौतिक संसाधनों की अभिव्यक्ति में लोगों के ‘व्यक्तिगत प्रभाव या ‘व्यक्तिगत सामान शामिल नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर कपड़े या परिधान, घरेलू सामान, व्यक्तिगत आभूषण और दैनिक उपयोग के अन्य सामान जो एक घर के व्यक्तियों से संबंधित हैं और जो प्रकृति और उपयोग में अंतरंग और व्यक्तिगत हैं। उन्होंने कहा कि व्यक्तिगत प्रभावों को छोड़कर, अन्य सभी निजी स्वामित्व वाले संसाधनों को ‘भौतिक संसाधन के रूप में समझा जा सकता है। जस्टिस नागरत्ना ने कहा कि निजी स्वामित्व वाले भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण किस तरह से समुदाय के भौतिक संसाधनों में बदल जाता है, जिसका वितरण आम लोगों की भलाई के लिए सर्वोत्तम तरीके से किया जा सके, यही मेरे फैसले का सार है। उन्होंने कहा कि निजी संपत्तियों को राष्ट्रीयकरण, अधिग्रहण, कानून का संचालन, राज्य द्वारा खरीद या मालिक द्वारा दान के जरिए भौतिक संसाधनों में बदला जा सकता है। उन्होंने कहा कि समुदाय के भौतिक संसाधनों को सामान्य भलाई के लिए सर्वोत्तम तरीके से वितरित किया जाना चाहिए और यह दो तरीकों से हो सकता है। पहला राज्य द्वारा स्वयं किसी सार्वजनिक उद्देश्य और/या सार्वजनिक उपयोग के लिए भौतिक संसाधन को बनाए रखना और दूसरा, निजी स्वामित्व वाले भौतिक संसाधनों को जब समुदाय के भौतिक संसाधनों के रूप में परिवर्तित किया जाता है, तो उन्हें नीलामी, अनुदान, असाइनमेंट, आवंटन, पट्टे, बिक्री या कानून द्वारा ज्ञात किसी अन्य हस्तांतरण विधि के माध्यम से पात्र और पात्र व्यक्तियों को अस्थायी या स्थायी रूप से वितरित किया जा सकता है, जो अपनाई गई विधि पर निर्भर करता है और बिना शर्त या शर्तों के साथ।

राजनीतिक और कानूनी समानताएं होने के बाद भी समाज में हैं असमानताएं- जस्टिस सुधांशु धूलिया :-

संविधान पीठ में शामिल जस्टिस सुधांशु धूलिया अपने अलग लिखे असहमति वाले फैसले में कहा कि ‘हमारे संविधान के भाग IV में अनुच्छेद 38 के साथ-साथ अनुच्छेद 39 (बी) और (सी) को शामिल करना उस समय के प्रचलित दर्शन और भारत द्वारा चुने गए विकास के मार्ग पर आधारित था। उन्होंने कहा कि शीर्ष अदालत द्वारा, विशेष रूप से रंगनाथ रेड्डी और संजीव कोक मामले में, उपरोक्त प्रावधानों की दी गई व्याख्या की भी अपनी प्रासंगिकता है। जस्टिस धूलिया ने कहा कि शायद कुछ मायनों में स्थितियां बदल गई हैं। लेकिन जो नहीं बदला है, वह है असमानता। उन्होंने कहा कि आज राजनीतिक समानता होने के साथ-साथ कानून में भी समानता है, लेकिन इसके बावजूद समाज में सामाजिक और आर्थिक असमानताए जारी हैं, जैसा कि डॉ. भीमराव अंबेडकर ने 25 नवंबर, 1949 संविधान सभा में अपने भाषण में आगाह किया था। उन्होंने कहा कि आय और संपत्ति में असमानता और अमीर और गरीब के बीच बढ़ती खाई अभी भी बहुत बड़ी है। इसलिए उन सिद्धांतों को छोड़ना समझदारी नहीं होगी जिन पर अनुच्छेद 38 और 39 आधारित हैं और जिन पर रंगनाथ रेड्डी में तीन न्यायाधीशों की राय और संजीव कोक में सर्वसम्मति से फैसला दिया गया है।

यह था विवाद :-

सुप्रीम कोर्ट में यह मामला 1992 में आया था और 2002 में इस मामले को 9 जजों की संविधान पीठ के समक्ष को भेजा गया था। करीब 22 साल तक लंबित रहने के बाद 2024 में इस मामले की सुनवाई पूरी हुई। दरअसल, 26 फरवरी 1986 को, महाराष्ट्र के राज्यपाल ने म्हाडा अधिनियम में संशोधन करने के लिए एक अध्यादेश पेश किया। ‌इसके बाद, एक संशोधन अधिनियम लागू हुआ, जिसमें म्हाडा अधिनियम का अध्याय VIII-ए डाला गया। यह अध्याय उपकरित संपत्ति के अधिग्रहण अधिभोगियों की सहकारी समितियों के लिए अधिकार, और इसके प्रावधान श्रेणी ए की इमारतों पर लागू होते हैं यानी बृहन्मुंबई में 1 सितंबर 1940 से पहले निर्मित जर्जर इमारतों पर लागू होती है। इसमें यह प्रावधान किया गया था कि ऐसी संपत्तियों के अधिग्रहण और परिसर के मासिक किराए के सौ गुना भुगतान पर सहकारी समिति को उनके हस्तांतरण करने का प्रावधान किया गया था, यदि इमारत का उपयोग करने वाले 70 प्रतिशत इस आशय का आवेदन करते हैं। इसी विवाद को लेकर यह मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा था।

संपत्ति मालिक संघ और अन्य की ओर से दाखिल अपीलों में कहा गया था कि अनुच्छेद 39(बी) के तहत भौतिक संसाधन शब्द की व्याख्या ऐसे किसी भी संसाधन के रूप में की जानी चाहिए जो समुदाय के व्यापक हित के लिए वस्तुओं या सेवाओं के माध्यम से धन पैदा करने में सक्षम हो। यदि कानून का उद्देश्य भौतिक संसाधनों के अर्थ में निजी संसाधनों को शामिल करना था, तो मसौदा तैयार करने वाले ने भविष्य में किसी भी संभावित गलत व्याख्या से बचने के लिए ऐसा किया होगा। अपील में कहा गया था कि अनुच्छेद 39(बी) की व्याख्या निरंतर विस्तारित संवैधानिक सिद्धांतों के दृष्टिकोण से होनी चाहिए न कि किसी विचारधारा के दृष्टिकोण से।

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