अबकी बार से इको फ्रेंडली होली की करें पहल-सामोता

जीवन अनमोल है इसे आत्महत्या कर नष्ट नहीं करें !

सुबह की शुरुआत माता-पिता के चरण स्पर्श से करें !

संस्कार सृजन राम गोपाल सैनी

होली फाल्गुन महीने की पूर्णिमा के दिन मनाया जाने वाला, बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक, बसंती रंगों से सजाने का एक रंगीन पर्व है, जिसकी गरिमा इसमें बरसाते रंगो, खुशनुमा माहौल और परस्पर समरसता से दृष्टिगोचर होती है । होली अपने आप में अनूठा त्यौहार है जो विभिन्न संस्कृतियों और परंपराओं को एक सूत्र में पिरोकर चलता है । भारत में होली के अपने धार्मिक, ऐतिहासिक और पौराणिक परिपेक्ष्य है ।


जहां यह रंगोत्सव सनातन धर्म के पन्नों में भक्त प्रहलाद और राधा कृष्ण से जुड़ी पौराणिक प्रेम के प्रतीक के रूप में देखा जाता है । वहीं मुगलिया काल में सजा के समय ईद ए गुलाबी या आब ए पासी अर्थात रंगों की बौछार के त्यौहार के रूप में होली का नाम इतिहास में दर्ज है । होली दिव्य, अलौकिक और आत्म जागृति का पर्व माना जाता है, जिसमें विविधता भरे रंग इसे बेहद खास व रंगीन बनाते हैं ।होली के विविध रंगों का सार यही है कि सभी पुराने गिले शिकवे भुलाकर, मित्रता की स्थापना हो और सभी एक दूसरे के रंग में रंग जाए और राग, रंग, मिठास व उल्लास के पर्व में घुल मिल जाए। 

रंग हमारे जीवन पर प्रत्यक्ष प्रभाव डालते हैं । लेकिन, विगत कुछ वर्षों से रंगों की पवित्रता को भी हानिकारक केमिकल और शीशा जैसे रसायनों का ग्रहण लग चुका है । कृत्रिम रंगों में मिलने वाले लेड क्रोमियम, सिलिका, आदि की मिलावट के चलते घातक स्वास्थ्य प्रभाव देखने में आ रहे हैं । आज होली के दौरान कृत्रिम जहरीले रंगों के प्रचलन से आंखों में इन्फेक्शन, विभिन्न त्वचा रोग, अस्थमा और एलर्जी जैसे रोगों की अधिकता सर्वाधिक देखने में आती है। वर्तमान बदलते परिवेश के साथ होली का स्वरूप भी बहुत हद तक परिवर्तित हो चुका है । 

आज की महानगरी संस्कृति की आपाधापी और भागदौड़ में रंगोत्सव/होली का त्यौहार भी औपचारिकता और दिखावे की भेंट चढ़ता जा रहा है । वही "बुरा ना मानो होली है" कहकर सामाजिक मर्यादा का उल्लंघन करने वाली मदहोश युवा मंडली ने होली जैसे पावन पर्व को अमर्यादित बना दिया है, जिसके चलते आज होली के अवसर पर विभिन्न पक्षों में मनमुटाव व अश्लीलता से झगडे उत्पन्न हो रहे हैं । पवित्र पावन पर्व रंगोत्सव में आई इन विकृतियों को दूर करने के लिए हमें आत्ममंथन करना होगा और होली के वास्तविक अर्थ को आत्मसात करना होगा । क्योंकि होली मात्र रंगों का त्यौहार नहीं है, बल्कि बहुत से विविध और अनूठे रंगों का पारस्परिक संगम भी है ।

परंपरा के अनुसार होलिका दहन के उत्सव में अलाव जलाया जाता है जो वनों की कटाई में योगदान देता है । होली के त्यौहार के दौरान कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, पार्टिकुलेट मैटर का स्तर प्रकृति में बढ़ जाता है, जिससे वायु की गुणवत्ता खराब हो जाती है । वही होली दहन के अगले दिन जैविक रंगों का प्रयोग ना कर अत्यधिक व्यवसायीकरण में लगी हुई कंपनियां द्वारा तैयार रासायनिक रंगों का प्रयोग किया जाता है । यह अत्यधिक जहरीले प्राप्त रंग प्राकृतिक परिस्थितियों में आसानी से नष्ट नहीं होते और पारंपरिक अपशिष्ट जल उपचार विधियों द्वारा इन्हें हटाया भी नहीं जा सकता । जिसके कारण न केवल हमारा वायुवीय पारिस्थितिक तंत्र बल्कि स्थलीय एवं जलीय पारिस्थितिक तंत्र असंतुलित हो जाता है । इसलिए हमें "इको फ्रेंडली" होली मनाने के लिए प्राकृतिक रंगों का इस्तेमाल करना चाहिए तथा पानी की भारी किल्लत को ध्यान में रखते हुए, पानी की बजाय सुखे व प्राकृतिक रंगों का प्रयोग करना चाहिए । इस प्रकार हमें भारतीय सभ्यता और संस्कृति के इस पुरातन त्योहार होली को जीवन में सब रंग भरने के रूप में मनाया जाना चाहिए तथा हमें प्रकृति एवं संस्कृति के अनुकूल आचरण कर जीवन की ऊर्जा का सकारात्मक प्रदर्शन करते हुऐ, उमंग और उत्साह से जीवन की हर पल को रंगीन बनाने के यत्न करने चाहिए । (ये लेखक के अपने विचार हैं)


लेखक : कैलाश सामोता "रानीपुरा" जयपुर (राज.)

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