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संस्कार सृजन @ राम गोपाल सैनी
जयपुर (संस्कार सृजन) प्रजातांत्रिक विकेन्द्रीयकरण के पूर्व देश में राज्य स्तर के नीचे का जो प्रशासनिक तंत्र स्थानीय विकास के लिय कार्यरत था। वह संरचना-परक अधिक परिस्थिति-परक कम था। प्रजातांत्रिक विकेन्द्रीयकरण के पश्चात्लो कप्रिय और प्रतिनिधिक संस्थाओं का निर्माण हुआ और उस समय विधमान सामुदायिक विकास तंत्र को उनके अधीन कर दिया गया। विकेन्द्रीयकरण के पश्चात् भी निर्मित संस्थाए वस्तुतः अधिकार रहित रही, यद्यपि उन्हें सामुदायिक विकास पद्धति के अन्तर्गत तत्कालीन प्राधिकारियों की अपेक्षा अधिक वास्तविक शक्तियां दी गई।
प्रजातांत्रिक विकेन्द्रीयकरण की नई पद्धति ने लोक नीतियों के निर्माण व उनके सफलतापूर्वक कार्यान्वयन दोनो मुख्य प्रक्रियाओं को प्रभावित किया। नव निर्मित प्रजातांत्रिक निकायोंको कुछ महत्वपूर्ण विमर्शात्मक और वित्तीय शक्तियां सौंप कर प्रशासन को उनके अधीन बनाया गया। नई प्रणाली के अन्तर्गत पर्वेक्षण की पद्धति सबसे अधिक विवादस्पद विषय था जिसके संबंध में बडी नाराजगी रही। गैर सरकारी पक्ष अथवा राजनैतिक पक्ष की स्थिति बडी अजीब रही, सभी सदस्यों की शेक्षिक योग्यताएं, ग्राम संस्थाओं के साथ संबंधो, आयुवर्ग, जातिवर्ग, आर्थिक स्थिति आदि में बडी भिन्नता रही। राजनीतिज्ञों के प्रति सरकारी अधिकारियों व कर्मचारियों की संकायें एवं पूर्वाग्रह रहा।
राज्य तथा राष्ट्रीय चुनावों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए पंचायत राज संस्थाए महत्वपूर्ण हो गई, इसलिए सभी स्तरों पर राजनैतिक हस्तक्षेप बढता गया। राजनैतिक माध्यम से हस्तक्षेप की प्रवर्ति एक बडा कारण है जिसका प्रशासनिक स्वायत्ता पर प्रभाव पडा। पर्वेक्षण, नियंत्रण, समन्वय, प्रशासनिक सुधार के साथ अधिकारियों और गैर अधिकारियों के परस्पर संबंधो की समस्या सबसे बडी रही।
विभिन्न विकास विभागों के भिन्न भिन्न प्रकार के कर्मचारी प्रतिनियुक्ति पर लेना पड़ा तथा उन्हें अनेक प्राधिकारियों के नियंत्रण में रखना पड़ा। गैर सरकारी नेताओं के राजनैतिक संबंध, प्रजातांत्रिक निकायों के राजनैतिक गठन से, प्रशासनिक पक्ष की स्वायत्ता का उल्लंघन हुआ। आर्थिक आयोजना की सबसे बडी समस्या आयोजन के कार्यान्वयन की रही। पंचायत राज की स्थापना से यह आशा की गई थी कि यह संस्थायें प्रशासन में जनसहयोग प्राप्त कर आयोजन के क्रार्यान्वयन की गति को बढायेगी परन्तु यह संस्थायें प्रशासनिक कार्य कुशलता के लिए प्रेरक नही बनी, इन संस्थाओं में राजनैतिक हस्तक्षेप की गति बढ़ी। इन संस्थाओं में पदस्थापित अधिकारीगण भी गैर अधिकारियों से सलाह लेना पसन्द नही करते, अपने ही निर्णयों को लागू करना चाहते है। अधिकारी तथा गैर अधिकारी एक साथ बैठ कर विचार विमर्ष नही करते, चालू कार्यक्रमों का मूल्यांकेन नही करते, नये कार्यक्रम तैयार नही करते। अधिकारीगण अशासकीय सदस्यों की बातों को चुनोती देते है। वैकल्पिक योजनायें प्रस्तुत करते है। बैठको में राजनीतिज्ञ, विकासशील, सामान्य तथा राजस्व अधिकारी भाग लेते है ,जिसमें जनप्रतिनिधियों, प्रशासको तथा विषेशज्ञों की मदद ली जा सकती है, परन्तु यह भी सुचारू रूप से नही हुआ। जनसहयोग का तात्पर्य श्रम, नकद, सामान के अंशदान के रुप में किया गया सबसे बडी कमजोरी उपयुक्त योग्यता वाले कर्मचारियों अधिकारियों की रही। जिला स्थापना समितियों का निर्माण भी उद्देश्य के अनुरुप सफल नही हुआ।
पंचायतराज संस्थाए राज्य सरकारों एवं राजनेताओं की इच्छानुसार ही कार्यरत रही। पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने पंचायतीराज की नींव रखी व पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने संविधान (73वां) संशोधन अधिनियम 1992 को पारित करा कर देश के संघीय लोकतांत्रिक ढांचे में एक नया मोड दिया। पंचायत राज संस्थाओं को संवैधानिक दर्जा प्राप्त हुआ। इस संशोधन द्वारा पंचायत राज की त्रिस्तरीय प्रणाली लागू की गई, प्रत्येक पांच वर्ष में पंचायतों के नियमित चुनाव प्रावधान किया गया, अनुसूचित जाति/जनजाति, पिछडावर्ग, महिलाओं के लिए आरक्षण किया गया, पंचायत राज संस्थाओं की वित्तीय श शक्तियों के संबंध में सिफारिश करने के लिए वित्त आयोग की स्थापना की गई, सम्पूर्ण जिले के लिए विकास योजना बनाने के लिए जिला आयोजन समिति का गठन हुआ। संशोधन से सदस्यता के लिए अयोग्यता वर्णित की गई, पंचायतों की शक्तियां, प्राधिकार और उत्तरदायित्व, कर अधिशोषित करने की शक्तियां, लेखाओं की सम परीक्षा, राज्य निर्वाचन आयुक्त द्वारा निर्वाचनों का अधीक्षण, निदेशन और नियंत्रण किया गया। निर्वाचन संबंधी मामलों में न्यायालयों का वर्जन किया गया। ग्राम सभा को मजबूती दी गई।
इन महत्वपूर्ण प्रावधानों के क्रियान्वयन के लिए राज्य विधानमण्डल को उपबन्ध करने कीशक्तियां दी गई। राज्य का विधान मण्डल पंचायतो को ऐसी शक्तियां और प्राधिकार एवं उत्तरदायित्व के उपबन्ध करेगे जो आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाएं तैयार करेगे। ऐसी स्कीमों को कार्यान्वित करेगे जो आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय से संबंधित हो। पंचायतराज विषयों के संबंध में 11वीं अनुसूची संविधान के अनुच्छेद 243(छ) के अन्तर्गत बनी, इसमें 29 विषय रखे गए।
परन्तु इन संस्थाओं पर राज्य सरकार का विधायी, न्यायीक और प्रशासनिक तीनों प्रकार का नियंत्रण जारी हैं। राज्य विधानसभा नये-नये नियमों के निर्माण व संशोधन कर अंकुश रखती है। विधियों की व्याख्या करती है, नियमों व विनियमों व निर्णयों की वैधता निर्धारित करती है। पग-पग पर प्रशासनिक नियंत्रण करती है। परामर्ष, निर्देश, समीक्षा, सशर्त अनुदान, रिपोर्ट प्राप्त करना, निर्वाचित पंच से लेकर प्रमुख को हटाना साधारण बात है। सरकार का कार्यात्मक निणंत्रण भी होता है। राज्य सरकारे अभिभावक के समान व्यवहार करती है। आर्थिक सहायता अनुपयुक्त है। जलप्रदाय, नाली निर्माण व सफाई, गन्दी बस्तियों का सुधार ,दलित आवास व विकास योजनाओं के लिए भी सरकार पर निर्भर रहना पडता है। स्थानीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए इन संस्थाओं को र्प्याप्त अधिकार प्राप्त नही है।
दूसरी ओर प्राप्त महत्वपूर्ण अधिकारों ने निर्वाचित लोगों में संकुचित स्वार्थमय प्रवृति, अक्षमता व अपव्ययता, पक्षपात और अनुकूलता को जन्म दे दिया। राजनैतिक चुनाव व्यवस्था के कारण दलबंदी,स्वार्थ भावना, पक्षपात, बहुमत का शासन जैसे दोष उत्पन्न हो गये। यह संस्थायें जनता की सेवा करने के बजाय दलबंदी, बेईमानी, जालसाजी, रिश्वत तथा झॅूठ का साधन बन गई। चुनकर आने वाले व्यक्तियों में उच्च नैतिक चरित्र,विषाल दृष्टिकोण नही रहा। इसलिए प्रशासनिक नियंत्रण और स्थानीय स्वतंत्रता के बीच भी सामंजस्य नही रहा। इन संस्थाओं में बढ रहे जातिवाद, धनबल, आरक्षण व गिरती प्रतिष्ठा के कारण ग्रामों के संभ्रात लोग इन संस्थाओं के चुनाव से दूर हो गये। संस्थाओं में व्याप्त अकुशलता व बेईमानी, लाखों करोडो के खर्च अब कुशल योग्य और ईमानदार व्यक्तियों को आकर्षित नही कर रही है। व्यक्तिगत स्वार्थ, एवं राजनैतिक दावपेचों में कुशल व्यक्तियों ने इन संस्थाओंको भ्रष्ट बना दिया। स्थानीय राजनीति के प्रति बुद्धिजीवी, प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ताओं का मोह नही रहा। वर्तमान में इन संस्थाओं के चुनावों में खरीद फरोख्त, खुली बाडाबंदी व दल बदल हो रहा है।
सरपंच से लेकर प्रमुख तक के चुनावों में बड़ी राशि खर्च कर जब कोई सरपंच, प्रधान, प्रमुख बनेगा तो जनविश्वास समाप्त हो रहा हैै, भ्रष्टाचार व कमीशनखोरी पनप रही है। येन-केन-प्रकारेण धन प्राप्त कर लेना नियम विरूद्ध कार्य व दूसरों के अधिकारों के हनन सुरक्षित तरीका बन गया। समूचे तंत्र में राजनैतिक हस्तक्षेप बढ़ गया।
राज्य सरकार में मंत्रीगण, सांसद व विधायक इन संस्थाओं की प्रशासनिक व आर्थिक शक्तियां नही बढाना चाहते। वे प्रतिबन्धात्मक राजनीति करते है। राज्य सरकारे वित्त आयोग, प्रषासनिक आयोग एवं उच्चस्तरीय समितियों की राय के अनुसार तकनीकी स्वीकृति, प्रशासनिक व वित्तीय अधिकार स्थान्तरित नही कर रही। वित्तीय आयोग भी राज्य सरकार की राय के अनुसार सिफारिश करते रहे है। ये संस्थायें आर्थिक रूप से सरकार पर निर्भर करती है। इन्हें संवैधानिक दर्जा मिला परन्तु वरिष्ठ कार्मिकों व विशेषज्ञों की नियुक्ति, उनके क्षेत्राधिकार व अधिकारों का निर्धारण सरकार के पास ही रहे। इस संस्थाओं के पदाधिकारियों के पास प्रशासनिक कर्तव्य एवं अधिकार होते है, सक्षम नेतृत्व हेतु कानूनी रुप से इनकी योग्यता व अनुभव निर्धारित की जानी चाहिए।
राजनैतिक कारणों से पंचायत राज संस्थाओं के सशक्तिकरण के बजाय सरकार सरपंच, पंचायत राज जनप्रतिनिधियों के अधिकारों में कटौती कर रही है। प्रशासनिक एवं वित्तीय अधिकार, मानदेय बढ़ाने, कंवर्जेस की अनिवार्यता से मुक्त करने, अर्द्धकुशल मजदूरों की दर बाजार दर के आधार पर निर्धारित करने, निर्माण नीति की जटिलताओं को दूर करने आदि मांगों के कारण सरपंचों को आंदोलन करना पड़ा है। सरपंचों की शिकायत है कि ग्रामीण कार्य निदेशिका में उल्लेखित प्रक्रिया इतनी जटिल हो गई है कि काम नहीं हो पा रहे है। उनकी मांग है कि 5 लाख तक की प्रशासनिक एवं वित्तीय स्वीकृति, 2 लाख तक की तकनीकी स्वीकृति जारी करने का अधिकार दिया जाये। हैण्डपम्प, सीवर, ट्यूबवेल की स्वीकृति एवं निविदा प्रक्रिया ग्राम स्तर पर ही जारी हो। स्वच्छ भारत मिशन में सफाई कार्यो के लिए सरपंचों को एक लाख रूपया खर्च करने का अधिकार हो, आम रास्तों पर काम कराने के लिए खातेदार की सहमति से कार्य कराये जाये। सुरक्षा प्रहरी का अधिकार पंचायतों को मिले।
ग्रामीण क्षेत्रों की स्वायत्तषासी संस्थाओं को संवैधानिक सरकार बनाने के लिए सरकारों व राजनैतिक दलों की दृढ प्रशासनिक, राजनैतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता है। कार्मिक व्यवस्था व अन्य महत्वपूर्ण फैसले इन संस्थाओं से बाहर राजनैतिक दल एवं व्यक्ति लेतेे है। इस प्रवृति को समाप्त कर इन संस्थाओं को प्रशासनिक, आर्थिक और प्रबन्धकीय व तकनीकी के तरीके से मजबूत किया जाये।
इन मांगों से ही स्पष्ट है कि राज्य सरकार सरपंचों को पंचायत स्तर के मामूली से मामूली प्रशासनिक, तकनीकी एवं वित्तीय स्वीकृतियां देने के अधिकार राजनैतिक कारणों से नहीं देना चाहती। वस्तुतः यह प्रशासनिक एवं राजनैतिक इच्छाशक्ति के अभाव का द्योतक है और संविधान संशोधन की भावना के प्रतिकूल है।
यदि प्रजातांत्रिक विकेन्द्रीयकरण कर, पंचायतराज संस्थाओं को सफल बनाना है तो निर्वाचित प्रतिनिधियों को पर्याप्त प्रशिक्षण देकर सक्षम बनाना होगा। जिम्मेदारी निश्चित कर आवश्यक शक्तियां व अधिकार देने होंगे। राज्य सरकार को लेखों की संपरीक्षा करने, अधीक्षण, निदेशक और नियंत्रण की पर्याप्त शक्तियां है, पंचायतों को स्थान्तरित की गई योजनाओं की सोशिल आडिट कराने का भी पर्याप्त अधिकार है।
लेखक : डॉ.सत्यनारायण सिंह, रिटायर्ड आई.ए.एस.
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